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क्या दुआ-ए-फ़र्सूदा हर्फ़-ए-बे-असर माँगूँ - ज़हीर ग़ाज़ीपुरी कविता - Darsaal

क्या दुआ-ए-फ़र्सूदा हर्फ़-ए-बे-असर माँगूँ

क्या दुआ-ए-फ़र्सूदा हर्फ़-ए-बे-असर माँगूँ

तिश्नगी में जीने का अब कोई हुनर माँगूँ

धूप धूप चल कर भी जब थके न हम-राही

कैसे अपनी ख़ातिर मैं साया-ए-शजर माँगूँ

आइना-नवाज़ी से कुछ नहीं हुआ हासिल

ख़ुद बने जो आईना अब वही हुनर माँगूँ

इक तरफ़ तअ'स्सुब है इक तरफ़ रिया-कारी

ऐसी बे-पनाही में क्या सुकूँ का घर माँगूँ

मेरी ज़िंदगी में जो बट न जाए ख़ानों में

मिल सके तो मैं ऐसा कोई बाम-ओ-दर माँगूँ

लम्हा लम्हा तेज़ी से अब ज़मीं खिसकती है

ख़ुद सफ़र का आलम है क्या कोई सफ़र माँगूँ

बे-तलब ही देता है जब 'ज़हीर' वो सब कुछ

किस लिए मैं फिर उस से जिंस-ए-मो'तबर माँगूँ

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