उन को हाल-ए-दिल-ए-पुर-सोज़ सुना कर उट्ठे
उन को हाल-ए-दिल-ए-पुर-सोज़ सुना कर उट्ठे
और दो-चार के घर आग लगा कर उट्ठे
तुम ने पहलू में मिरे बैठ के आफ़त ढाई
और उठे भी तो इक हश्र उठा कर उट्ठे
वादा-ए-वस्ल से है नाश पे आने की उम्मीद
मुज़्दा-ए-क़त्ल मिरा मुझ को सुना कर उट्ठे
मुँह छुपाने में तो है शर्म ओ हया का पर्दा
हाँ मगर दिल भी निगह था कि चुरा कर उट्ठे
आज आए थे घड़ी भर को 'ज़हीर'-ए-नाकाम
आप भी रोए हमें साथ रुला कर उट्ठे
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