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फटा पड़ता है जोबन और जोश-ए-नौ-जवानी है - ज़हीर देहलवी कविता - Darsaal

फटा पड़ता है जोबन और जोश-ए-नौ-जवानी है

फटा पड़ता है जोबन और जोश-ए-नौ-जवानी है

वो अब तो ख़ुद-ब-ख़ुद जामे से बाहर होते जाते हैं

नज़र होती है जितनी उन को अपने हुस्न-ए-सूरत पर

सितमगर बे-मुरव्वत कीना-परवर होते जाते हैं

भला इस हुस्न-ए-ज़ेबाई का उन के क्या ठिकाना है

कि जितने ऐब हैं दुनिया में ज़ेवर होते जाते हैं

अभी है ताज़ा ताज़ा शौक़-ए-ख़ुद-बीनी अभी क्या है

अभी वो ख़ैर से नख़वत के ख़ूगर होते जाते हैं

वो यूँ भी माह-ए-तलअत हैं मगर शोख़ी क़यामत है

कि जितने बद-मज़ा होते हैं ख़ुश-तर होते जाते हैं

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