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नसीहत-गरो दिल लगाया तो होता - ज़हीर देहलवी कविता - Darsaal

नसीहत-गरो दिल लगाया तो होता

नसीहत-गरो दिल लगाया तो होता

कभी ख़ंजर-ए-इश्क़ खाया तो होता

न आता कि आता शिकायत न रहती

मुझे अंजुमन में बुलाया तो होता

न मानूँगा नासेह कि दिल पर है क़ाबू

लगा कर किसी से दिखाया तो होता

ये माना अदू पर है मैलान-ए-ख़ातिर

कोई रोज़ उस को सताया तो होता

न आते तो ख़ंजर ही वो भेज देते

कि हम ने गले से लगाया तो होता

मिरी सख़्त-जानी के शिकवे बजा थे

कभी दस्त-ए-नाज़ुक उठाया तो होता

'ज़हीर' आज दावा है जिन को ज़बाँ का

सुख़न अपना उन को सुनाया तो होता

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