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कुछ शिकवे-गिले होते कुछ तैश सिवा होता - ज़हीर देहलवी कविता - Darsaal

कुछ शिकवे-गिले होते कुछ तैश सिवा होता

कुछ शिकवे-गिले होते कुछ तैश सिवा होता

क़िस्मत में न मिलना था मिलते भी तो क्या होता

जाते तो क़लक़ होता आते तो ख़फ़ा होते

हम जाते तो क्या होता वो आते तो क्या होता

शिकवों का गिला क्या है इंसाफ़ तो कर ज़ालिम

क्या कुछ न किया होता गर तू मेरी जा होता

गर सुल्ह ठहर जाती सौ फ़ित्ने उठे होते

अच्छा है न मिलना ही मिलते तो बुरा होता

सोचो तो 'ज़हीर' आख़िर वो जौर तो करता है

मैं उस से गिला कर के महरूम-ए-जफ़ा होता

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