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इश्क़ और इश्क़-ए-शोला-वर की आग - ज़हीर देहलवी कविता - Darsaal

इश्क़ और इश्क़-ए-शोला-वर की आग

इश्क़ और इश्क़-ए-शोला-वर की आग

आग और उल्फ़त-ए-बशर की आग

जिस को कहते हैं बर्क़-ए-आलम-सोज़

है वो काफ़िर तिरी नज़र की आग

हाए-रे तेरी गर्मी-ए-रफ़्तार

ख़ाक तक भी है रहगुज़र की आग

लो शब-ए-वस्ल भी तमाम हुई

आसमाँ को लगी सहर की आग

इश्क़ क्या शय है हुस्न है क्या चीज़

कुछ इधर की है कुछ उधर की आग

तूर-ए-सीना बना दिया दिल को

उफ़-रे काफ़िर तिरी नज़र की आग

हक़्क़-तआला बचाए इस से 'ज़हीर'

क़हर है उल्फ़त-ए-बशर की आग

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