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हाथ से हैहात क्या जाता रहा - ज़हीर देहलवी कविता - Darsaal

हाथ से हैहात क्या जाता रहा

हाथ से हैहात क्या जाता रहा

मरने जीने का मज़ा जाता रहा

ज़िंदगी का आसरा जाता रहा

हाए जीने का मज़ा जाता रहा

ले गया सरमाया-ए-सब्र-ओ-क़रार

माया-दार अब सब्र का जाता रहा

उम्र भर की सब कमाई लुट गई

ज़ीस्त का बर्ग-ओ-नवा जाता रहा

दिल अगर बाक़ी रहा किस काम का

चैन दिल का ऐ ख़ुदा जाता रहा

ज़िंदगानी की हलावत उठ गई

दाना-पानी का मज़ा जाता रहा

जो सहारा था दम-ए-दरमाँदगी

वो बुढ़ापे का असा जाता रहा

कीजिए किस बात की अब आरज़ू

आरज़ू का मुद्दआ जाता रहा

गुल हुआ अपना चराग़-ए-आरज़ू

नूर घर का ऐ ख़ुदा जाता रहा

हाए कैसा लुट गया बाग़-ए-मुराद

क्या शजर फूला-फला जाता रहा

रोइए क्या ज़िंदगानी को 'ज़हीर'

मौत का भी अब मज़ा जाता रहा

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