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दे हश्र के वादे पे उसे कौन भला क़र्ज़ - ज़हीर देहलवी कविता - Darsaal

दे हश्र के वादे पे उसे कौन भला क़र्ज़

दे हश्र के वादे पे उसे कौन भला क़र्ज़

तुम ले के न देते हो किसी का न दिया क़र्ज़

है दिल में अगर उस से मोहब्बत का इरादा

ले लीजिए दुश्मन के लिए हम से वफ़ा क़र्ज़

आशिक़ के सताने में दरेग़ उन को न होगा

मौजूद हैं लेने को जो मिल जाए जफ़ा क़र्ज़

उस हाथ से दो क़ौल तो इस हाथ से लो दिल

देता है कोई हश्र के वादे ये भला क़र्ज़

माना कि जफ़ाओं की तलाफ़ी हैं वफ़ाएँ

होगा न 'ज़हीर' उन की अदाओं का अदा क़र्ज़

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