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बुतों से बच के चलने पर भी आफ़त आ ही जाती है - ज़हीर देहलवी कविता - Darsaal

बुतों से बच के चलने पर भी आफ़त आ ही जाती है

बुतों से बच के चलने पर भी आफ़त आ ही जाती है

ये काफ़िर वो क़यामत हैं तबीअ'त आ ही जाती है

ये सब कहने की बातें हैं हम उन को छोड़ बैठें हैं

जब आँखें चार होती हैं मुरव्वत आ ही जाती है

वो अपनी शोख़ियों से कोई अब तक बाज़ आते हैं

हमेशा कुछ न कुछ दिल में शरारत आ ही जाती है

हमेशा अहद होते हैं नहीं मिलने के अब उन से

वो जब आ कर लिपटते हैं मोहब्बत आ ही जाती है

कहीं आराम से दो दिन फ़लक रहने नहीं देता

हमेशा इक न इक सर पर मुसीबत आ ही जाती है

मोहब्बत दिल में दुश्मन की भी अपना रंग लाती है

वो कितने बे-मुरव्वत हों मुरव्वत आ ही जाती है

'ज़हीर'-ए-ख़स्ता-जाँ शब सो रहा कुछ खा के सुनते हैं

तअ'ज्जुब क्या है इंसाँ को हमिय्यत आ ही जाती है

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