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ऐसे की मोहब्बत को मोहब्बत न कहेंगे - ज़हीर देहलवी कविता - Darsaal

ऐसे की मोहब्बत को मोहब्बत न कहेंगे

ऐसे की मोहब्बत को मोहब्बत न कहेंगे

इस आम इनायत को इनायत न कहेंगे

कहिए तो कहूँ अंजुमन-ए-ग़ैर को रूदाद

क्या अब भी इसे आप करामत न कहेंगे

समझेंगे न अग़्यार को अग़्यार कहाँ तक

कब तक वो मोहब्बत को मोहब्बत न कहेंगे

जब अरबदा-जू तुम हो तो क्यूँ सब्र समेटें

हम इस में रक़ीबों की शरारत न कहेंगे

है याद 'ज़हीर' उन का शब-ए-वस्ल बिगड़ना

वो तल्ख़ी-ए-दुश्नाम की लज़्ज़त न कहेंगे

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