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ग़ुरूर-ओ-नाज़-ओ-तकब्बुर के दिन तो कब के गए - ज़हीर अहमद ज़हीर कविता - Darsaal

ग़ुरूर-ओ-नाज़-ओ-तकब्बुर के दिन तो कब के गए

ग़ुरूर-ओ-नाज़-ओ-तकब्बुर के दिन तो कब के गए

ज़हीर अब वो ज़माने हसब-नसब के गए

बहुत ग़ुरूर गुलिस्ताँ में था गुलाबों को

तुम्हें जो देखा तो होश-ओ-हवास सब के गए

मचा है शोर ख़िज़ाँ का है रुख़ उसी जानिब

अगर ये सच है तो समझो कि हम भी अब के गए

ख़ुलूस से न सही रस्म ही निभाने को

तुम आ गए हो तो शिकवे तमाम लब के गए

वो चाँदनी वो तबस्सुम वो प्यार की बातें

हुई सहर तो वो मंज़र तमाम शब के गए

कभी तो हल्क़ा-ए-ज़ंजीर-ए-यास भी टूटे

कभी तो लौट के आएँ वो लम्हे जब के गए

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