सो रहे थे शहर भी जंगल भी जब
रो रहा था नीला अम्बर टूट कर
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बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं
कितने हाथ सवाली हैं
आँगन-आँगन जारी धूप
ब-ज़ाहिर यूँ तो मैं सिमटा हुआ हूँ
गिर गए जब सब्ज़ मंज़र टूट कर
न कहो तुम भी कुछ न हम बोलें
क्या जाने क्यूँ जलती है
सिर्फ़ ज़फ़र 'ताबिश' हैं हम