मंज़र से ला-मंज़र तक
आँखें ख़ाली ख़ाली हैं
Javed Akhtar
Mir Taqi Mir
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Mohsin Naqvi
Rahat Indori
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Ahmad Faraz
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न कहो तुम भी कुछ न हम बोलें
ब-ज़ाहिर यूँ तो मैं सिमटा हुआ हूँ
क्या जाने क्यूँ जलती है
सिर्फ़ ज़फ़र 'ताबिश' हैं हम
जब भी झुक कर मिलता हूँ मैं लोगों से
बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं
आँगन-आँगन जारी धूप
सो रहे थे शहर भी जंगल भी जब
गिर गए जब सब्ज़ मंज़र टूट कर