ब-ज़ाहिर यूँ तो मैं सिमटा हुआ हूँ
अगर सोचो तो फिर बिखरा हुआ हूँ
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मंज़र से ला-मंज़र तक
सो रहे थे शहर भी जंगल भी जब
क्या जाने क्यूँ जलती है
न कहो तुम भी कुछ न हम बोलें
बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं
जब भी झुक कर मिलता हूँ मैं लोगों से
गिर गए जब सब्ज़ मंज़र टूट कर
सिर्फ़ ज़फ़र 'ताबिश' हैं हम