बस्ती बस्ती जंगल जंगल घूमा मैं
लेकिन अपने घर में आ कर सोया मैं
Wasi Shah
Ahmad Faraz
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Habib Jalib
Gulzar
Mir Taqi Mir
Parveen Shakir
Rahat Indori
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न कहो तुम भी कुछ न हम बोलें
ब-ज़ाहिर यूँ तो मैं सिमटा हुआ हूँ
क्या जाने क्यूँ जलती है
आँगन-आँगन जारी धूप
सो रहे थे शहर भी जंगल भी जब
जब भी झुक कर मिलता हूँ मैं लोगों से
मंज़र से ला-मंज़र तक
सिर्फ़ ज़फ़र 'ताबिश' हैं हम
गिर गए जब सब्ज़ मंज़र टूट कर