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याद में तेरी दो आलम को भुलाना है हमें - ज़फ़र ताबाँ कविता - Darsaal

याद में तेरी दो आलम को भुलाना है हमें

याद में तेरी दो आलम को भुलाना है हमें

उम्र भर अब कहीं आना है न जाना है हमें

कहते हैं इश्क़ का अंजाम बुरा होता है

अब तो कुछ भी हो मोहब्बत को निभाना है हमें

ख़लिश-ए-इश्क़ से बे-चैन है दिल एक तरफ़

उस पे यारब ग़म-ए-हस्ती भी उठाना है हमें

हाए वो आग जो मुश्किल से जली थी दिल में

आज उस आग के शो'लों को बुझाना है हमें

रुख़्सत अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं मिलती न मिले

क़िस्सा-ए-शौक़ निगाहों से सुनाना है हमें

आप काँटों से जो बचते हुए चलते हैं चलें

दामन-ए-शौक़ को फूलों से बचाना है हमें

हाए इस शर्म-ए-मोहब्बत का बुरा हो 'ताबाँ'

इश्क़ का राज़ अब उन से भी छुपाना है हमें

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