शिकायतों की अदा भी बड़ी निराली है
वो जब भी मिलता है झुक कर सलाम करता है
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दिलों के बीच न दीवार है न सरहद है
अक्स ज़ख़्मों का जबीं पर नहीं आने देता
बे-हिसी पर हिस्सियत की दास्ताँ लिख दीजिए
शब के ग़म दिन के अज़ाबों से अलग रखता हूँ
ऐ हम-सफ़र ये राह-बरी का गुमान छोड़
मैं तुम्हें फूल कहूँ तुम मुझे ख़ुश्बू देना
जो पढ़ा है उसे जीना ही नहीं है मुमकिन
अमीर-ए-शहर इस इक बात से ख़फ़ा है बहुत
चिलचिलाती धूप ने ग़ुस्सा उतारा हर जगह
ये अमल रेत को पानी नहीं बनने देता
गुल हैं तो आप अपनी ही ख़ुश्बू में सोचिए