झूट भी सच की तरह बोलना आता है उसे
कोई लुक्नत भी कहीं पर नहीं आने देता
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शब के ग़म दिन के अज़ाबों से अलग रखता हूँ
रखा है बज़्म में उस ने चराग़ कर के मुझे
अमीर-ए-शहर इस इक बात से ख़फ़ा है बहुत
ऐ हम-सफ़र ये राह-बरी का गुमान छोड़
शिकायतों की अदा भी बड़ी निराली है
बे-हिसी पर हिस्सियत की दास्ताँ लिख दीजिए
जब अधूरे चाँद की परछाईं पानी पर पड़ी
सब्ज़े से सब दश्त भरे हैं ताल भरे हैं पानी से
गुल हैं तो आप अपनी ही ख़ुश्बू में सोचिए
दिलों के बीच न दीवार है न सरहद है