दिलों के बीच न दीवार है न सरहद है
दिखाई देते हैं सब फ़ासले नज़र के मुझे
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रखा है बज़्म में उस ने चराग़ कर के मुझे
जब अधूरे चाँद की परछाईं पानी पर पड़ी
शिकायतों की अदा भी बड़ी निराली है
ये अमल रेत को पानी नहीं बनने देता
कभी कभी कोई चेहरा ये काम करता है
सब्ज़े से सब दश्त भरे हैं ताल भरे हैं पानी से
जो पढ़ा है उसे जीना ही नहीं है मुमकिन
अक्स ज़ख़्मों का जबीं पर नहीं आने देता
बे-हिसी पर हिस्सियत की दास्ताँ लिख दीजिए
शब के ग़म दिन के अज़ाबों से अलग रखता हूँ