जाँ रहे नोचते हयात के दुख
जाँ रहे नोचते हयात के दुख
ज़ात के और काएनात के दुख
कुछ बिगाड़ा न वक़्त ने इन का
हैं जवाँ अब भी मेरे साथ के दुख
रोज़-मर्रा का बन गए मामूल
रोज़-मर्रा मुआ'मलात के दुख
फ़तह ने भी शिकस्त-ओ-रेख़्त ही दी
जीत से मुंसलिक थे मात के दुख
रह गया अब जुनूँ ही कम-आमेज़
इश्क़ में तो हैं बात बात के दुख
हम ग़रीबों के रोज़-ओ-शब न पूछ
दिन में भी जागते हैं रात के दुख
टूटने में ही आफ़ियत थी 'रबाब'
झेलता कौन एहतियात के दुख
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