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रात भर सूरज के बन कर हम-सफ़र वापस हुए - ज़फ़र मुरादाबादी कविता - Darsaal

रात भर सूरज के बन कर हम-सफ़र वापस हुए

रात भर सूरज के बन कर हम-सफ़र वापस हुए

शाम बिछड़े हम तो हंगाम-ए-सहर वापस हुए

जल्वागाह-ए-ज़ात से कब ख़ुद-निगर वापस हुए

और अगर वापस हुए तो बे-बसर वापस हुए

थी हमें मल्हूज़-ए-ख़ातिर नेक-नामी इस क़दर

चूम कर नज़रों से उन के बाम-ओ-दर वापस हुए

मुज़्दा परवाज़-ए-अदम का है कि राहत की नवेद

दम लबों पर है तो अपने बाल-ओ-पर वापस हुए

शौक़-ए-मंज़िल था कहाँ मुझ सा किसी का मो'तबर

दो क़दम भी चल न पाए हम-सफ़र वापस हुए

कारवाँ से जो भी बिछड़ा गर्द-ए-सहरा हो गया

टूट कर पत्ते कब अपनी शाख़ पर वापस हुए

सुब्ह दम ले कर चली घर से तलाश-ए-रोज़गार

शाम हम रुख़ पर लिए गर्द-ए-सफ़र वापस हुए

ज़िंदगी में आईं सुब्हें और शामें भी बहुत

अहद-ए-रफ़्ता के कहाँ शाम-ओ-सहर वापस हुए

आख़िरश बुझ ही गया है ख़ुश-गुमानी का चराग़

तुम बिछड़ कर फिर कहाँ इम्कान भर वापस हुए

ख़ुश-गुमानी का भरम रक्खा नई पहचान ने

फिर मिरे नग़मों में ढल कर सीम-बर वापस हुए

होश से आरी रही दीवानगी अपनी 'ज़फ़र'

बा-ख़बर महफ़िल में रह कर बे-ख़बर वापस हुए

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