नक़ाब उस ने रुख़-ए-हुस्न-ए-ज़र पे डाल दिया
नक़ाब उस ने रुख़-ए-हुस्न-ए-ज़र पे डाल दिया
कि जैसे शब का अंधेरा सहर पे डाल दिया
समाअतें हुईं पुर-शौक़ हादसों के लिए
ज़रा सा रंग-ए-बयाँ जब ख़बर पे डाल दिया
तमाम उस ने महासिन में ऐब ढूँड लिए
जो बार-ए-नक़्द-ओ-नज़र दीदा-वर पे डाल दिया
अब इस को नफ़ा कहीं या ख़सारा-ए-उल्फ़त
जो दाग़ उस ने दिल-ए-मो'तबर पे डाल दिया
क़रीब ओ दूर यहाँ हम-सफ़र नहीं कोई
तिरी तलब ने ये किस रहगुज़र पे डाल दिया
हुसूल-ए-मंज़िल-ए-जानाँ से हाथ धो लेंगे
कुछ और बोझ जो पा-ए-सफ़र पे डाल दिया
जो हम-अज़ाब था उस की ही छाँव में आ कर
ख़ुद अपनी धूप का लश्कर शजर पे डाल दिया
भटक रहा था जो असरार-ए-फ़न की वादी में
उरूज दे के फ़राज़-ए-हुनर पे डाल दिया
बे-ए'तिदाल थे ख़ुद उन के ख़त्त-ओ-ख़ाल 'ज़फ़र'
हर इत्तिहाम मगर शीशागर पे डाल दिया
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