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हर इंतिख़ाब यहाँ माज़ी-ओ-अक़ब का है - ज़फ़र मुरादाबादी कविता - Darsaal

हर इंतिख़ाब यहाँ माज़ी-ओ-अक़ब का है

हर इंतिख़ाब यहाँ माज़ी-ओ-अक़ब का है

सवाल मेरा नहीं है मिरे नसब का है

शुऊ'र-ए-लौह-ओ-क़लम से ज़ुहूर-ए-महफ़िल तक

हर एक बे-अदबी पर लिबास अदब का है

न कोई दाद न तहसीन सिर्फ़ ख़ामोशी

मिरे सुख़न पे तेरा तब्सिरा ग़ज़ब का है

हो एक फ़र्द तो हो फ़र्द-ए-जुर्म भी आयद

सितमगरी तो यहाँ कारोबार सब का है

उगा नहीं कोई सूरज मिरे मुक़द्दर का

दिनों पे जैसे मुसल्लत इ'ताब शब का है

तमाम ज़हमतें मेरे गुनाह के साए

तमाम राहतें इनआ'म मेरे रब का है

ज़फ़र ग़ज़ल है कि ज़ख़्मों की हाशिया-बंदी

न ख़ाल-ओ-ख़त का कोई तज़्किरा न लब का है

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