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नन्हा पौदा - ज़फ़र कमाली कविता - Darsaal

नन्हा पौदा

गरचे पौदा अभी हूँ छोटा सा

आरज़ू दिल में है मिरे क्या क्या

आ ही जाएगी रुत जवानी की

यानी मुझ पर भी शादमानी की

डाली डाली मिरी हरी होगी

और फल फूल से भरी होगी

फ़ैज़ होगा जहाँ में आम मिरा

ख़िदमत-ए-ख़ल्क़ होगा काम मिरा

सारी चिड़ियों को मैं बुलाऊँगा

ख़ूब मेवे उन्हें खिलाऊँगा

घोंसले मुझ पे वो बनाएँगी

राग छेड़ेंगी चहचहाएँगी

जो भी आएगा उन का करने शिकार

मेरे पत्तों की देखेगा दीवार

गर्मियों में मुसाफ़िर आएँगे

मेरे साए में चैन पाएँगे

बच्चे आएँगे झूला झूलेंगे

गीत गा के ख़ुशी में फूलेंगे

वो चलाएँगे मुझ पे जब पत्थर

इस के बदले मैं इन को दूँगा समर

एक ख़्वाहिश है और दिल में बड़ी

काश वो भी करे ख़ुदा पूरी

सूख जाऊँ तो लकड़ियों से मिरी

ख़ूबसूरत सी इक बने कुर्सी

उस पे बैठे फ़क़त वही लड़का

जिस के सर में हो इल्म का सौदा

दिल में अपने जो मैं ने ठानी है

उस की ये मुख़्तसर कहानी है

मैं भी बच्चा हूँ तुम भी बच्चे हो

मैं भी सच्चा हूँ तुम भी सच्चे हो

क्या बनाया है ज़िंदगी का प्लान

मैं तो रखता हूँ तुम से नेक गुमान

आज छोटे हो कल जो होगे जवाँ

कौन से काम तुम करोगे यहाँ

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