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किताबें - ज़फ़र कमाली कविता - Darsaal

किताबें

समझता है इसे सारा ज़माना

किताबें इल्म-ओ-हिकमत का ख़ज़ाना

दिलों का नूर हैं अच्छी किताबें

चराग़-ए-तूर हैं अच्छी किताबें

हमारी मूनिस ओ ग़म-ख़्वार हैं ये

जिहाद-ए-इल्म की ललकार हैं ये

किताबें क्या हैं रूहानी ख़ुदा हैं

सकूँ दिल का दवाओं की दवा हैं

हमारी क्यूँ न हो मंज़िल किताबें

रसूलों पर हुईं नाज़िल किताबें

किताबों से है जिस की आश्नाई

बड़ी दौलत जहाँ में उस ने पाई

किताबें कामयाबी का हैं ज़ीना

रखें आबाद ये दिल का मदीना

किताबों की रिफ़ाक़त भी अजब है

तअल्लुक़ तोड़ना इन से ग़ज़ब है

सदाक़त का यही रस्ता दिखाएँ

बुरों को भी यही अच्छा बनाएँ

सिखाती हैं ये जीने का तरीक़ा

बताती हैं हमें क्या है सलीक़ा

किसी ने मुँह किताबों से जो फेरा

यक़ीनन उस को ज़िल्लत ने है घेरा

किताबों से अगर ख़ाली मकाँ है

वो है भूतों का मस्कन घर कहाँ है

किताबों से हलावत गुफ़्तुगू में

शराफ़त का असर बाक़ी लहू में

किताबों से जहाँ में नाम ज़िंदा

हमारी सुब्ह ज़िंदा शाम ज़िंदा

किताबों से सदा रिश्ता बढ़ाओ

इसी में ज़िंदगी अपनी लगाओ

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