निगाहों में जो मंज़र हो वही सब कुछ नहीं होता
बहुत कुछ और भी प्यारे पस-ए-दीवार होता है
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शरीर बच्चे
नाम से गाँधी के चिढ़ बैर आज़ादी से है
किसी का हो नहीं सकता है कोई काम रोज़े में
निकाह कर नहीं सकती वो मुझ फ़क़ीर के साथ
मोहब्बत की जिस को ख़ुमारी लगे
गुड़िया की शादी
आता है याद मुझ को
किताबें
तराना
नन्हा पौदा