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निकाह कर नहीं सकती वो मुझ फ़क़ीर के साथ - ज़फ़र कमाली कविता - Darsaal

निकाह कर नहीं सकती वो मुझ फ़क़ीर के साथ

निकाह कर नहीं सकती वो मुझ फ़क़ीर के साथ

रखेल बन के रहेगी किसी वज़ीर के साथ

वही सुलूक ज़माने ने मेरे साथ किया

किया था जैसा मुशर्रफ़ ने बेनज़ीर के साथ

जो चाहता है लगे पार इश्क़ का बेड़ा

दुआ सलाम रखे हुस्न के सफ़ीर के साथ

थपक थपक के सुलाया है मैं ने मुश्किल से

न छेड़-छाड़ करो तुम मिरे ज़मीर के साथ

जो चाहता है कि बन जाए वो बड़ा शायर

वो जा के दोस्ती गाँठे किसी मुदीर के साथ

वफ़ूर-ए-इश्क़ के जज़्बे से हो गई सरशार

निकल पड़ी है मुरीदान जदीद पीर के साथ

दुल्हन के साथ न आया जहेज़ तो ये लगा

खिलाए जैसे करैला भी कोई खीर के साथ

वो पेश पेश था जिस दम छिड़ी थी जंग-ए-वजूद

सिले के वक़्त 'ज़फ़र' है सफ़-ए-अख़ीर के साथ

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