इश्क़ जब से हो गया इक लखनवी ख़ातून से
इश्क़ जब से हो गया इक लखनवी ख़ातून से
दिल की बातें रोज़ ही करता हूँ टेलीफ़ोन से
जो ग़लाज़त दिल में है वो दूर होगी किस तरह
गंदगी तो जिस्म की धोते हो तुम साबून से
शेरवानी और टोपी जाएँ चूल्हे-भाड़ में
अब तो रग़बत है मुझे बस कोट से पतलून से
पोपले मुँह से चने खाना नहीं मुमकिन हुज़ूर
आ नहीं सकती जवानी लौट के माजून से
नाक़िद-ए-आज़म हूँ मूली पर लिखूँ मज़मून अगर
बात का आग़ाज़ करता हूँ मैं अफ़लातून से
एक ही सूरत में घर की पूरी हों फ़रमाइशें
ख़ानदानी सिलसिला मिलता हो गर क़ारून से
इस ज़माने की अजब तिश्ना-लबी है ऐ 'ज़फ़र'
प्यास उस की सिर्फ़ बुझती है हमारे ख़ून से
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