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तब्-ए-रौशन को मिरी कुछ इस तरह भाई ग़ज़ल - ज़फ़र कलीम कविता - Darsaal

तब्-ए-रौशन को मिरी कुछ इस तरह भाई ग़ज़ल

तब्-ए-रौशन को मिरी कुछ इस तरह भाई ग़ज़ल

जब भी मैं तन्हा हुआ हूँ मुझ को याद आई ग़ज़ल

जब भी दिन डूबा हुई फ़िक्र-ए-सुख़न लाहक़ मुझे

शाम होते ही मिरे साग़र में दर आई ग़ज़ल

याद जब आए मुझे बिछड़े हुए साथी मिरे

काँपते होंटों की हर सिलवट पे लहराई ग़ज़ल

फूल सी आँखों में अंगारे लिए फिरता हूँ मैं

रात भर सोने कहाँ देती है हरजाई ग़ज़ल

रंग सोचों के बिखर जाते हैं एहसासात पर

ज़ेहन में शाएर के जब लेती है अंगड़ाई ग़ज़ल

ना-गहाँ लोगों ने दिल मेरा दिखाया तो मुझे

यूँ लगा गोया मिरे दुख बाँटने आई ग़ज़ल

मुझ को याद आया बहुत वो ना-मुराद-ए-इश्क़ 'मीर'

दिल के तारों पर 'ज़फ़र' मुतरिब ने जब गाई ग़ज़ल

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