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नवा-ए-हक़ पे हूँ क़ातिल का डर अज़ीज़ नहीं - ज़फ़र कलीम कविता - Darsaal

नवा-ए-हक़ पे हूँ क़ातिल का डर अज़ीज़ नहीं

नवा-ए-हक़ पे हूँ क़ातिल का डर अज़ीज़ नहीं

पड़े जिहाद तो अपना भी सर अज़ीज़ नहीं

पड़ा हुआ हूँ सर-ए-रहगुज़र तो रहने दे

तिरी गली से ज़ियादा तो घर अज़ीज़ नहीं

फ़क़ीर-ए-शहर को लाल-ओ-गुहर से क्या निस्बत

मिरे अज़ीज़ मुझे माल-ओ-ज़र अज़ीज़ नहीं

फलों को लूट के ले जाओ पेड़ मत काटो

शजर अज़ीज़ है मुझ को समर अज़ीज़ नहीं

वो लोग हम से अलग अपना रास्ता कर लें

कि जिन को शहर-ए-वफ़ा का सफ़र अज़ीज़ नहीं

बहुत अज़ीज़ हैं मुझ को मोहब्बतें लेकिन

मोहब्बतों में सियासत 'ज़फ़र' अज़ीज़ नहीं

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