इन दिनों मैं ग़ुर्बतों की शाम के मंज़र में हूँ
इन दिनों मैं ग़ुर्बतों की शाम के मंज़र में हूँ
मेरी छत टूटी पड़ी है दूसरों के घर में हूँ
आएगा इक दिन मिरे उड़ने का मौसम आएगा
बस इसी उम्मीद पर मैं अपने बाल-ओ-पर में हूँ
जिस्म की रानाइयों में ढूँडते हो तुम मुझे
और मैं कब से तुम्हारी रूह के पैकर में हूँ
देखते हैं सब नज़र आती हुईं ऊँचाइयाँ
कौन देखेगा मुझे बुनियाद के पत्थर में हूँ
आप क्या रोकेंगे इज़हार-ए-सदाक़त से मुझे
आप को दुनिया का डर है मैं ख़ुदा के डर में हूँ
ऐ ज़माने कल मिरी ठोकर से बचना है तुझे
इत्तिफ़ाक़न आज वैसे मैं तिरी ठोकर में हूँ
मौत बन जाऊँगा तेरी ऐ सितमगर देखना
मुझ पे जो ख़ंजर उठेगा मैं उसी ख़ंजर में हूँ
नफ़रतों की इक दहकती आग है चारों तरफ़
मैं फ़साद-ए-शहर के जलते हुए मंज़र में हूँ
सोचता हूँ ये भी कैसी बद-नसीबी है 'ज़फ़र'
मैं बहादुर हो के भी हारे हुए लश्कर में हूँ
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