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हो चुकी हिजरत तो फिर क्या फ़र्ज़ है घर देखना - ज़फ़र कलीम कविता - Darsaal

हो चुकी हिजरत तो फिर क्या फ़र्ज़ है घर देखना

हो चुकी हिजरत तो फिर क्या फ़र्ज़ है घर देखना

अपनी फ़ितरत में नहीं पीछे पलट कर देखना

अब वो बरगद है न वो पनघट न अब वो गोपियाँ

ऐसे पस-मंज़र में क्या गाँव का मंज़र देखना

जादा-ए-गुल की मसाफ़त ही नहीं है ज़िंदगी

ज़िंदगी करना है अँगारों पे चल कर देखना

अपने मुख़्लिस दोस्तों पर वार मैं कैसे करूँ

कोई दुश्मन सामने आए तो जौहर देखना

प्यास होंटों पर लिए बैठा हूँ साहिल पर मगर

ज़िद पे आ जाऊँ तो कूज़े में समुंदर देखना

खिड़कियाँ खुलते ही हम होंगे निशाना वक़्त का

ज़ख़्म सीने पर सजाना हो तो बाहर देखना

मेरे हाथों की लकीरों में है गर्दिश वक़्त की

मेरी क़िस्मत ही में लिक्खा था ये चक्कर देखना

ज़िंदगी भर ठोकरें खाने से बेहतर है 'ज़फ़र'

रास्ता चलते हुए रस्ते के पत्थर देखना

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