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घर से निकाले पाँव तो रस्ते सिमट गए - ज़फ़र कलीम कविता - Darsaal

घर से निकाले पाँव तो रस्ते सिमट गए

घर से निकाले पाँव तो रस्ते सिमट गए

हम यूँ चले कि राह के पत्थर भी हिट गए

हम ने खुले किवाड़ पे दस्तक सुनी मगर

वो कौन लोग थे कि जो आ कर पलट गए

दर बंद ही रखो कि हवाओं का ज़ोर है

अब के खुले किवाड़ तो समझो कि पिट गए

ग़ारत-गरी-ए-ज़ोर-ए-तलातुम अरे ग़ज़ब

कश्ती के बादबान हवाओं से फट गए

सहरा की तेज़ धूप घने जंगलों की छाँव

इन में मिरे नसीब के दिन रात बट गए

शोहरत की आरज़ू ने किया बे-वतन हमें

इतनी बढ़ी ग़रज़ कि उसूलों से हट गए

जब जब भी मैं नय तर्क-ए-वतन का किया ख़याल

क़दमों से मेरे गाँव के रस्ते लिपट गए

किन से करें शिकायत-ए-जौर-ओ-सितम 'ज़फ़र'

अपने गले तो अपने ही ख़ंजर से कट गए

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