यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
बात कुछ भी न हो और दिल में तमाशा लग जाए
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कहाँ चली गईं कर के ये तोड़-फोड़ 'ज़फ़र'
मैं डूबता जज़ीरा था मौजों की मार पर
हवा शाख़ों में रुकने और उलझने को है इस लम्हे
हर नया ज़ाइक़ा छोड़ा है जो औरों के लिए
फिर जा रुकेगी बुझते ख़राबों के देस में
ज़मीं पे एड़ी रगड़ के पानी निकालता हूँ
बीनाई से बाहर कभी अंदर मुझे देखे
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
हमारे सर से वो तूफ़ाँ कहीं गुज़र गए हैं
दिन चढ़े होना न होना एक सा रह जाएगा
जो बंदा-ए-ख़ुदा था ख़ुदा होने वाला है