ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही न हो कहीं
जो सो गए हैं उन को जगा लेना चाहिए
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हम पे दुनिया हुई सवार 'ज़फ़र'
तिरे लबों पे अगर सुर्ख़ी-ए-वफ़ा ही नहीं
इस बार मिली है जो नतीजे में बुराई
वीराँ थी रात चाँद का पत्थर सियाह था
मिरा मेयार मेरी भी समझ में कुछ नहीं आता
एक ना-मौजूदगी रह जाएगी चारों तरफ़
अभी तो करना पड़ेगा सफ़र दोबारा मुझे
चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें
मैं भी कुछ देर से बैठा हूँ निशाने पे 'ज़फ़र'
जहाँ मेरे न होने का निशाँ फैला हुआ है
एक ही बार नहीं है वो दोबारा कम है
आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब