ये क्या फ़ुसूँ है कि सुब्ह-ए-गुरेज़ का पहलू
शब-ए-विसाल तिरी बात बात से निकला
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लगता है इतना वक़्त मिरे डूबने में क्यूँ
यकसू भी लग रहा हूँ बिखरने के बावजूद
यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
मिलूँ उस से तो मिलने की निशानी माँग लेता हूँ
तुझ को मेरी न मुझे तेरी ख़बर जाएगी
तन्हा रहने में भी कोई उज़्र नहीं है
पाए हुए इस वक़्त को खोना ही बहुत है
न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है
आख़िर 'ज़फ़र' हुआ हूँ मंज़र से ख़ुद ही ग़ाएब
बुझा नहीं मिरे अंदर का आफ़्ताब अभी
हाथ पैर आप ही मैं मार रहा हूँ फ़िलहाल
पतंग उड़ाने से क्या मनअ कर सके ज़ाहिद