यहीं तक लाई है ये ज़िंदगी भर की मसाफ़त
लब-ए-दरिया हूँ मैं और वो पस-ए-दरिया खिला है
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चमके गा अभी मेरे ख़यालात से आगे
नहीं कि दिल में हमेशा ख़ुशी बहुत आई
ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं
फिर जा रुकेगी बुझते ख़राबों के देस में
दिल को रहीन-ए-बंद-ए-क़बा मत किया करो
हमारे सर से वो तूफ़ाँ कहीं गुज़र गए हैं
अब उस की दीद मोहब्बत नहीं ज़रूरत है
तिरे रास्तों से जभी गुज़र नहीं कर रहा
जिस्म के रेगज़ार में शाम-ओ-सहर सदा करूँ
किस ताज़ा मारके पे गया आज फिर 'ज़फ़र'
पाए हुए इस वक़्त को खोना ही बहुत है
दिन चढ़े होना न होना एक सा रह जाएगा