वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा
अभी वर्ना पड़ी थी एक दुनिया देखने को
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तन्हा रहने में भी कोई उज़्र नहीं है
चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें
लगी थी जान की बाज़ी बिसात उलट डाली
यूँ तो है ज़ेर-ए-नज़र हर माजरा देखा हुआ
इसे मंज़ूर नहीं छोड़ झगड़ता क्या है
ये क्या फ़ुसूँ है कि सुब्ह-ए-गुरेज़ का पहलू
उठा सकते नहीं जब चूम कर ही छोड़ना अच्छा
गिरने की तरह का न सँभलने की तरह का
मौत के साथ हुई है मिरी शादी सो 'ज़फ़र'
तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें
सिर्फ़ आँखें थीं अभी उन में इशारे नहीं थे
बुढ़ापे से अगली ये मंज़िल है कोई