वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले
कि जिन से मैं ने ख़ुद अपना सुराग़ पाया था
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हाथ पैर आप ही मैं मार रहा हूँ फ़िलहाल
हद हो चक्की है शर्म-ए-शकेबाई ख़त्म हो
लहर की तरह किनारे से उछल जाना है
एक ना-मौजूदगी रह जाएगी चारों तरफ़
ज़िंदा रखता था मुझे शक्ल दिखा कर अपनी
तक़ाज़ा हो चुकी है और तमन्ना हो रहा है
मौसम का हाथ है न हवा है ख़लाओं में
करता हूँ नींद में ही सफ़र सारे शहर का
बहुत सुलझी हुई बातों को भी उलझाए रखते हैं
हवा बदल गई उस बेवफ़ा के होने से
यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
ख़ामुशी अच्छी नहीं इंकार होना चाहिए