वो मक़ामात-ए-मुक़द्दस वो तिरे गुम्बद ओ क़ौस
और मिरा ऐसे निशानात का ज़ाएर होना
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तिरे लबों पे अगर सुर्ख़ी-ए-वफ़ा ही नहीं
आबा तो 'ज़फ़र' नहीं थे ऐसे
वहाँ मक़ाम तो रोने का था मगर ऐ दोस्त
ये शहर ज़िंदा है लेकिन हर एक लफ़्ज़ की लाश
ये हाल है तो बदन को बचाइए कब तक
न घाट है कोई अपना न घर हमारा हुआ
इसे भी 'ज़फ़र' मेरी हिम्मत ही समझो
ख़ुदा को मान कि तुझ लब के चूमने के सिवा
अपने इंकार के बर-अक्स बराबर कोई था
यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
न कोई बात कहनी है न कोई काम करना है
ख़ुश बहुत फिरते हैं वो घर में तमाशा कर के