वहाँ मक़ाम तो रोने का था मगर ऐ दोस्त
तिरे फ़िराक़ में हम को हँसी बहुत आई
Wasi Shah
Habib Jalib
Parveen Shakir
Allama Iqbal
Gulzar
Rahat Indori
Jaun Eliya
Mir Taqi Mir
Ahmad Faraz
Mohsin Naqvi
Faiz Ahmad Faiz
Anwar Masood
Love Poetry
Funny Poetry
Sad Poetry
Rain Poetry
Sharabi Poetry
Friends Poetry
(1474) Peoples Rate This
यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
उठा सकते नहीं जब चूम कर ही छोड़ना अच्छा
किस ताज़ा मारके पे गया आज फिर 'ज़फ़र'
बाज़ार-ए-बोसा तेज़ से है तेज़-तर 'ज़फ़र'
जहाँ निगार-ए-सहर पैरहन उतारती है
यक़ीं की ख़ाक उड़ाते गुमाँ बनाते हैं
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही न हो कहीं
जहाँ से कुछ न मिले हुस्न-ए-माज़रत के सिवा
मैं किसी और ज़माने के लिए हूँ शायद
इंकिसारी में मिरा हुक्म भी जारी था 'ज़फ़र'
ऐसी कोई दरपेश हवा आई हमारे