सुनोगे लफ़्ज़ में भी फड़फड़ाहट
लहू में भी पर-अफ़्शानी रहेगी
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बात मुझ में भी कुछ इस तरह की होगी जो यहाँ
हवा शाख़ों में रुकने और उलझने को है इस लम्हे
हम पे दुनिया हुई सवार 'ज़फ़र'
दिल से बाहर निकल आना मिरी मजबूरी है
रू-ब-रू कर के कभी अपने महकते सुर्ख़ होंट
ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही न हो कहीं
हज़ार बंदिश-ए-औक़ात से निकलता है
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है
तुम ही बतलाओ कि उस की क़द्र क्या होगी तुम्हें
तुम अपनी मस्ती में आन टकराए मुझ से यक-दम
पैदा ये ग़ुबार क्यूँ हुआ है