शब-ए-विसाल तिरे दिल के साथ लग कर भी
मिरी लुटी हुई दुनिया तुझे पुकारती है
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ज़िंदा भी ख़ल्क़ में हूँ मरा भी हुआ हूँ मैं
तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है
मेरे अंदर वो मेरे सिवा कौन था
कभी अव्वल नज़र आना कभी आख़िर होना
यहाँ सब से अलग सब से जुदा होना था मुझ को
मिरा मेयार मेरी भी समझ में कुछ नहीं आता
जहाँ मेरे न होने का निशाँ फैला हुआ है
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
किरदार उस को ढूँडते फिरते हैं जा-ब-जा
ये भी मुमकिन है कि आँखें हों तमाशा ही न हो
रखता हूँ अपना आप बहुत खींच-तान कर
फिर कोई शक्ल नज़र आने लगी पानी पर