पतंग उड़ाने से क्या मनअ कर सके ज़ाहिद
कि उस की अपनी अबा में पतंग उड़ती है
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बारिश की बहुत तेज़ हवा में कहीं मुझ को
जहाँ मेरे न होने का निशाँ फैला हुआ है
बीनाई से बाहर कभी अंदर मुझे देखे
भरी रहे अभी आँखों में उस के नाम की नींद
मुस्कुराते हुए मिलता हूँ किसी से जो 'ज़फ़र'
जो यहाँ ख़ुद ही लगा रक्खी है चारों जानिब
तिलिस्म-ए-होश-रुबा में पतंग उड़ती है
अभी मेरी अपनी समझ में भी नहीं आ रही
मिरा मेयार मेरी भी समझ में कुछ नहीं आता
टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को
आतश ओ इंजिमाद है मुझ में
लगाता फिर रहा हूँ आशिक़ों पर कुफ़्र के फ़तवे