न जाने क्यूँ मिरी निय्यत बदल गई यक-दम
वगर्ना उस पे तबीअ'त मिरी बहुत आई
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अगर कभी तिरे आज़ार से निकलता हूँ
बाहर से चट्टान की तरह हूँ
दरिया दूर नहीं और प्यासा रह सकता हूँ
मैं अंदर से कहीं तब्दील होना चाहता था
परियों ऐसा रूप है जिस का लड़कों ऐसा नाँव
लगी थी जान की बाज़ी बिसात उलट डाली
रखता हूँ अपना आप बहुत खींच-तान कर
ये शहर ज़िंदा है लेकिन हर एक लफ़्ज़ की लाश
तिरे रास्तों से जभी गुज़र नहीं कर रहा
यहीं तक लाई है ये ज़िंदगी भर की मसाफ़त
पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को
अभी किसी के न मेरे कहे से गुज़रेगा