मुझ से छुड़वाए मिरे सारे उसूल उस ने 'ज़फ़र'
कितना चालाक था मारा मुझे तन्हा कर के
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पाए हुए इस वक़्त को खोना ही बहुत है
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
जब नज़ारे थे तो आँखों को नहीं थी परवा
जो बंदा-ए-ख़ुदा था ख़ुदा होने वाला है
मुझे कुछ भी नहीं मालूम और अंदर ही अंदर
पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को
सच है कि हम से बात भी करना नमाज़ है
रोक रखना था अभी और ये आवाज़ का रस
मुश्किल-पसंद ही सही मैं वस्ल में मगर
तिरा चढ़ा हुआ दरिया समझ में आता है
बस एक बार किसी ने गले लगाया था