मुझ में हैं गहरी उदासी के जरासीम इस क़दर
मैं तुझे भी इस मरज़ में मुब्तला कर जाऊँगा
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हवा बदल गई उस बेवफ़ा के होने से
अपनी ये शान-ए-बग़ावत कोई देखे आ कर
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
चेहरे से झाड़ पिछले बरस की कुदूरतें
बदला ये लिया हसरत-ए-इज़हार से हम ने
उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
ये ज़मीन आसमान का मुमकिन
रूह फूँकेगा मोहब्बत की मिरे पैकर में वो
ये शहर ज़िंदा है लेकिन हर एक लफ़्ज़ की लाश
हद हो चक्की है शर्म-ए-शकेबाई ख़त्म हो
रू-ब-रू कर के कभी अपने महकते सुर्ख़ होंट