मैं बिखर जाऊँगा ज़ंजीर की कड़ियों की तरह
और रह जाएगी इस दश्त में झंकार मिरी
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लगी थी जान की बाज़ी बिसात उलट डाली
इस बार मिली है जो नतीजे में बुराई
रूह फूँकेगा मोहब्बत की मिरे पैकर में वो
बात ऐसी भी कोई नहीं कि मोहब्बत बहुत ज़ियादा है
अभी आँखें खुली हैं और क्या क्या देखने को
कुछ नहीं समझा हूँ इतना मुख़्तसर पैग़ाम था
मैं डूबता जज़ीरा था मौजों की मार पर
ख़राबी हो रही है तो फ़क़त मुझ में ही सारी
जिस्म के रेगज़ार में शाम-ओ-सहर सदा करूँ
जिस का इंकार हथेली पे लिए फिरता हूँ
न उस को भूल पाए हैं न हम ने याद रक्खा है
ये बात अलग है मिरा क़ातिल भी वही था