मैं भी कुछ देर से बैठा हूँ निशाने पे 'ज़फ़र'
और वो खेंचा हुआ तीर भी चल जाना है
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दिल से बाहर निकल आना मिरी मजबूरी है
आतश ओ इंजिमाद है मुझ में
ये शहर ज़िंदा है लेकिन हर एक लफ़्ज़ की लाश
तिरे आसमाँ की ज़मीं हो गया हूँ
ख़ुदा को मान कि तुझ लब के चूमने के सिवा
ईमाँ के साथ ख़ामी-ए-ईमाँ भी चाहिए
ये नहीं कहता कि दोबारा वही आवाज़ दे
उस को भी याद करने की फ़ुर्सत न थी मुझे
बहुत सुलझी हुई बातों को भी उलझाए रखते हैं
पाए हुए इस वक़्त को खोना ही बहुत है
बारिश की बहुत तेज़ हवा में कहीं मुझ को
वो क़हर था कि रात का पत्थर पिघल पड़ा