लगता है इतना वक़्त मिरे डूबने में क्यूँ
अंदाज़ा मुझ को ख़्वाब की गहराई से हुआ
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यूँ तो है ज़ेर-ए-नज़र हर माजरा देखा हुआ
यकसू भी लग रहा हूँ बिखरने के बावजूद
जिसे अब तक तलाश करता हूँ
दिन चढ़े होना न होना एक सा रह जाएगा
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
खींच लाई है यहाँ लज़्ज़त-ए-आज़ार मुझे
कुछ उस ने सोचा तो था मगर काम कर दिया था
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
टकटकी बाँध के मैं देख रहा हूँ जिस को
आज कल उस की तरह हम भी हैं ख़ाली ख़ाली
न कोई बात कहनी है न कोई काम करना है
पूरी आवाज़ से इक रोज़ पुकारूँ तुझ को